आकाश जल उलीच रहा है, वायु गंध बिखेर रही है और धरती हरीतिमा बांट रही है।
2.
जिस प्रकार वायु गंध को उड़ाकर ले जाती है, उसी प्रकार वे वसंत-सी एक ही सांस में उड़कर चली गईं।
3.
' जैसे वायु गंध के स्थान से गंध को ग्रहण करके ले जाता है, वैसे ही देहादि का स्वामी जीवात्मा भी जिस शरीर का त्याग करता है उससे मन सहित इन्द्रियों को ग्रहण करके फिर जिस शरीर को प्राप्त होता है-उसमें जाता है.